Sunday, March 23, 2014

20 years of Congress and BJP Governments in Rajasthan and A School's Story

गप्पें लड़ाने में किसे मज़ा नहीं आता? और चुनाव के माहौल में तो यह मज़ा और भी बढ़ जाता है।चाहे बस में, रेल में, घर में, खेत-खलिहान में, दफ्तर में या फिर चौपाल पे हो; हर जगह यही चर्चा चलती है कि कौन जीतेगा? किसकी लहर है, कौन किस बिरादरी का है और कौन राजनेता किस रैली में हेलिकॉप्टर से आने वाला है।

मैं इस चर्चा से पहली बार वाकिफ़ हुआ जब मैं कक्षा 6 में था । सरपंच - प्रधान बनने का चुनाव था, बच्चे भी स्कूल छोड़ के रैलियों में तमाशा देखने ट्रैक्टर - ट्रॉलियों में  बैठ के घूमते थे। प्रचार करने वाले ढोलक और हारमोनियम की धुन पे गाँव - गाँव जाके वोटर्स को लुभाने में व्यस्त थे। चुनाव भी हो गए, सरपंच और प्रधान भी बन गए। लेकिन यह चुनावी प्रतियोगिता कई प्रतियोगियों का तेल निचोड गयी । चुनाव में एक प्रतियोगी कि ट्रॉली बिक गयी 15 हज़ार में तो एक जने को अपनी भैंसे बेचनी पड़ी । आखिर काफी महंगा होता है सैकड़ों कार्यकर्ताओं का खर्च चलाना। आजकल तो यह खर्चे १० - २० लाख तक पहुँच जाते हैं कहीं कहीं तो |

चुनाव होते गए, सरपंच बनते गए और उनके कार्यकाल पूरे होते गए। MP और MLA के चुनाव भी होते गए। कभी सीट सामान्य वर्ग के लिए होती तो कभी SC-ST के लिए आरक्षित होती और कभी महिलाओं के लिए । जिन वायदों पे प्रतिनिधि वोट माँगते थे वह सभी चुनाव का खर्च निकालने कि जद्दोजहद में कहीं गुम हो जाते । विकास के काम भी होते, गाँव कि गलियों में MP और MLA डेवलपमेंट फंड से सड़कें बनती और नेता जी उनका उद्घाटन करने आते,  लोग उनकों मालायें  पहनाते, स्कूल के बच्चे उनका स्वागत गान करते और नेताजी अच्छा खासा भाषण दे जाते। सड़कें कुछ ही दिनों में राहगीरों के पैरों तले गड्ढों में तब्दील हो जाती और फिर से चुनावी वायदों का हिस्सा बन जाती, सब कुछ ऐसे ही चलता रहता है जैसे मेरी यादों के पिछले दो दशकों से चलता आ रहा है।


भारत की केंद्र सरकार में और राजस्थान राज्य सरकार में नेता भी आते रहे और जाते रहे, विकास की गाथाएं सुनाते रहे और लोग सुनते रहे, थोडा बहुत काम भी होता रहा। राजस्थान में अगर देखें तो पिछले 20 वर्ष में से 10 साल बीजेपी की और 10 साल कांग्रेस की सरकार रही है और अब फिर से बीजेपी शासन कर रही है लेकिन कुछ फर्क ही महसूस नहीं होता। जो नेता कल बीजेपी में थे अब वह कांग्रेस में आ गए, कुछ कांग्रेस से बीजेपी में चले गए, कुछ अपनी पार्टी खोल के बैठ गए या फिर कुछ निर्दलीय खड़े हो गए | आखिर क्या फर्क पड़ता है, जनता है वोट करती रहेगी। फर्क महसूस भी कैसे हो, कोई विकल्प ही नहीं है, जनता के पास भी और बेचारे इन दल बदलू नेताओं के पास भी, या तो कांग्रेस या फिर वैसी ही बीजेपी। कुछ लोग कहेंगे कि फर्क तो है.… एक तरफ एक 43 साल के एक युवा नेता का जोश है तो दूसरी तरफ राम मंदिर बनाने से विकास कि यात्रा पे ले जाने का सपना दिखाने वाला नेता है। लेकिन हम कैसे फर्क मान लें जब पिछले २० बरसों में भी कोई फर्क नहीं दिखा है | … जरा एक स्कूल कि तस्वीरों को तो देखिये .. आपको खुद ही पता चल जायेगा कि कितना विकास हुआ है |


स्कूल बर्षों से ऐसा ही है। खुला खुला .... 
ऐसे ही बोर्ड् हैं अपने स्कूल में तो। । नेताजी के बच्चे थोड़े पढ़ते हैं यहाँ पे 


भूखे पेट भजन न होय गोपाला। । स्कूल तो हम अपना पेट पालने आते हैं। 

अपने स्कूल की रसोई 

अपने दोस्त ... सभी मिल जुल कर रहते हैं

वर्ल्ड क्लास एजुकेशन का वायदा किया था नेता जी ने तो।

 
देश के संविधान और न्यायपालिका के बारे में जानकारी रखते हैं हम । 

हमारे नेताजी आजकल हरियाणा के राज्यपाल हैं ।

यह छत अपना बोझ उठा ले वह भी कम नहीं ।

खुला हुआ जंगला। दरवाज़ा तो हमने ही निकाल फेंका

वही खिलोने जो २० साल पहले होते थे  ।

अब समझ में आया कि मैं एक नए विकल्प कि तलाश में क्यूँ हूँ ? … और वह विकल्प है ...
आम आदमी पार्टी। मेरा अगला वोट आप को ही होगा | :)